Friday, February 28, 2014

साहब के कुत्ते

एक पुरानी कविता का संपादित संस्करणः

साहब के कुत्ते
साहब के कुत्ते होते हैं साहब से भी ज्यादा खतऱनाक
भौंकते रहते हैं हर आने जाने वाले पर बेबात
चाटते हैं तलवे साहव-ओ- कारिंदों के हो बिल्कुल बेबाक
 अपनी भी जमात की पीठ में घोंपते हैं छुरा
साहब को कह दे जो सपने में भी बुरा
दौड़ते हैं काटने साहब के एक  इशारे पर
 हो जाते हैं नौ-दो-ग्यारह पत्थर उठाने पर
होते हैं उल्लसित हैवानियत की जीत में
ढ़ूंढ़ते गौरव किसी कल्पित अतीत में
ऐंठ जाते हैं पाते ही आश्रय कुर्सी का
दुम हिलाकर बैठ जाते हैं दिखते ही   टुकड़ा हड्डी का
रथ के नीचे चलते हुए सोचते रथ के यही हैं सारथी
अनुशासन के ज़ीरो पावर बल्ब के यही हैं महारथी
काम है इनका करना आवाम की चौकसी
करते हैं मगर ये तो बस साहब की चाकरी
प्यार-पुचकार में भी इनकी होता है 14 इंजक्शनों का डर
होता जो उसमें विवेकहीन वफादारी का जहर
इतिहास है इस बात का चश्मदीद गवाह
साहब के कुत्ते होते हैं साहब से भी ज्यादा खतऱनाक
[ईमि/01.03..2014]

इतिहास के साथ बलात्कार

हर तानाशाह अपना सफर इतिहास के साथ बलात्कार से शुरू करता है. इतिहास गवाह है. इतिहास बोध से वंचित होने के कारण तानाशाह अपने पूर्वजों की दर्दनाक अंत की कहानियां नहीं पढ़ना-जानना चाहता और यह भी नहीं कि इतिहास के साथ उसके इस अपराध की सजा फसके नाम पर थूक कर आने वाली पीढ़ी-दर- पीढ़ी देती रहती है. वह तो ताकत के नशे में उन्मत्त रहता है. भक्ति-भाव की अफीम में धुत्त, उसके विवेकहीन भक्त (ज्यातर पढ़े-लिखे, विवेकहीन इसलिए कि वे विवेक इस्तेमाल करके य़ह जानने की कोशिस नहीं करते कि किस गुण से वह उनका भगवान बन गया) भी पढ़ने-जानने की कोशिस नहीं करते कि इतिहास तानाशाहों के भक्तों के साथ कैसा सलूक करता है.


Wednesday, February 26, 2014

बहुत तेज होता है फासीवाद

बहुत तेज होता है फासीवाद
करता है अफवाहें ईजाद
पैदा करने को फिरकापरस्त धर्मोंमाद
और फैलाने को नफरत की आग
करवाता है फिर भीषण जनसंहार
लूट, आगजनी और बलात्कार
मनाता है शौर्यदिवस मर्दानगी का
फासीवादी लंपटों की हैवानगी का 
जानता है यह राज़ मुल्क का थैलीशाह
मुनाफे की फासीवाद में गुंजाइश अथाह
छिपकर ही नहीं खुलकर भी देता वह इसका साथ
दिख जाता है सबको बाजार का अदृश्य हाथ
लिख गये हैं गोरख पांडेय कुछ दशक पहले
उगती हैं दंगों की जमीन पर मतदान की फसलें
जागेगा ही आवाम लेकिन एक-न-एक दिन
होगा वह फासीवादी मंसूबों का अंतिम दिन
फैलेगी मुल्क में फिर से सामासिक संस्कृति
होगी नहीं जिसमें फिरकापरस्ती की विकृति
(ईमिः 27.02.2014)

Monday, February 24, 2014

क्षणिकाएं 16 (371-80)

371
वसंत 1
सुंदर कविता  की चादर चढ़ाकर कर दो और सुंदर धरती
सरसों के फूलों की खुशबू की मस्ती कभी नहीं भूलती 
याद आते हैं गेहूं-चना-मटर के खेतों की मेड़ों के टेढ़े मेढ़े रास्ते 
जाते थे स्कूल करते हुए बतकुच्चन से मनसायन और खुराफातें
पहला पड़ाव था मुर्दहिया बाग, खेलते वहां लखनी या शुटुर्र 
करते हुए इंतजार उन दोस्तों का गांव थे जिनके और भी दूर
पहुंचते ही उन सबके जुट जाता हम बच्चों का एक बड़ा मज्मा
मिलते और लड़के अगले गांवों में बढ़ता जाता हमारा कारवां 
पहुंचते जमुना के ताल पर था जो हमारा अगला पड़ाव 
उखाड़ते हुए चना-मटर -लतरा करते पार कई गांव 
जलाकर गन्ने की पत्तियां भूनते थे हम होरहा वहां 
और गांवों के लड़के कर रहे होते पहले से इंतज़ार जहां
गाता-गप्पियाता चलता जाता था हमारा कारवां 
रुका फुलवरिया बाग में अंतिम पड़ाव होता था जहां 
वहां से स्कूल तक हम सब अच्छे बच्चे बन जाते 
रास्ते में क्योंकि कोई-न-कोई मास्टर दिख जाते 
इतनी क्या क्या बातें करते होंगे उस उम्र के बच्चे 
याद नहीं कुछ भी लेकिन थे नहीं कभी हम चुप रहते. 
किसा को भी मिलता है ज़िंदगी में एक ही बचपन 
रमता जब अमराइयों और सरसों के फूलों में मन
(ईमिः 03.01.2014)
372
वसंत 2
देखे हैं अब तक कितने ही वसंत, यादों की जिनके न आदि है न अंत
याद आ रहे हैं बहुत आज किशोर वय के बसंत, होते थे मन में भविष्य के सपने अनंत 
 रमता था मन जब आम के बौर और ढाक की कलियों में, नीम की मंजरी और मटर की फलियों में
आता वसंत मिलता ठिठुरती ठंढ से छुटकारा, बच्चे करते समूहगान में मां सरस्वती का जयकारा
निकल शीत के गर्भ से जब ऋतु वसंत आती, धरती को उम्मीदों की थाती दे जाती 
(ईमिः 03.01.2014)
373
देखा जब इस वसंत की पहली भोर, हो गया आज कुछ जल्दी अंजोर
सूरज ने उगने का पूर्वाभास दिया, अंधेरों की दुनिया को उदास किया
आम के बौर पर पड़ा जब प्रकाश, सुनहरा हो गया सारा आकाश
घास पर सुबह की जगमगाती धूप, सुनहरी चादर से जैसे तुपा गयी दूब
धूप में सरसों के पीले फूल पड़े मचल, चहचहाती सनी चिड़ियों में मची हलचल
मटमैला चीकू सुनहरा दिखने लगा, पके नीबू से मिलाप करने लगा
हूं मैं नास्तिक व वंचित उत्सवधर्मिता से, मनाता हूं वसंत का पर्व मगर तत्परता से
(ईमिः04.02.2014)
374
करता हिंदू होने पर संघी गर्व, मनाता हत्या-बलात्कार का पर्व
है मनु महराज न्यायविद सबसे बड़ा  इनका, वर्णाश्रमी मर्दवाद है अनमोल पैगाम जिनका
पैदा करवाता जो ब्रह्मा से दो तरह के लोग, कुछ बहायें पसीना कुछ करें भोग
कुछ को माथे और बाजू से, लैस करके पोथी-तलवार-तराजू से
कुछ को जंघे और पांव से करवाता पैदागुलामी की बेड़ियां ढोयें जो सर्वदा
जो जन्म की अस्मिता से उबर नहीं पाता, जीववैज्ञानिक दुर्घटना को इष्ट मानता
पढ़-लिख कर भी वह जाहिल रह जाता, पूर्वाग्रहों का ज्ञान की खान बतलाता
मानवीय विवेक को धता बताताशर्म की बात पर जो गर्व करता है
बेड़ा इतिहास का गर्क करता है
[ईमि/06.02.2014]
375
कौन है यह कन्या मगन गहन चिंतन में
करती बेटोक विचरण ख़यालों के उपवन में?
[ईमि/11.02.2014]
376
( प्रतिभा केजन्मदिन पर प्रतिमा के सौजन्य से)
छोड़ दिया था कविता लिखना, क्योंकि थीं सब अति-साधाण
जन्मदिन पर लिखूं क्या उसके, है जो इंसान  असाधारण 
लगाया तुमने अब शब्दों की कंजूसी का अनुचित इल्जाम
करता हूं टूटे-फूटे शब्दों में प्रेमोत्सव पर जन्मी प्रतिभा को सलाम
करता हूं जन्मदिन पर दिल से कामना  कि भरो एक ऊँची उड़ान 
नतमस्तक हो जायें बिघ्न-बाधाओं के सब आंधी-तूफान
(ईमिः14.02.2014) 
377
मंजिलें और भी हैं इस मंज़िल के बाद
चाहतें और भी हैं इस चाहत के बाद
खत्म नहीं होता तहेज़िंदगी चलता है सफर
दीवारें जरूरी हैं लेकिन बेदर होता नहीं घर 
पहुंच अगली मंजिल पर करो कुछ विश्राम
हो तर-ओ-ताजा छेड़ो अगला अभियान
सफर ज़िंदगी का चलता रहेगा तब तक 
मानव-मुक्ति का पैगाम गूंजेगा न जब तक.
(ईमिः23.02.2014)
378
अतिविनम्र और अति मृदुभाषी होते हैं जो
मक्कारी व छल-कपट की तिकड़में करते हैं वो.
(ईमिः24.02.2014)
379
जो तलाशते हैं सारी महानता अतीत में, भागते हैं दूर मौजूदा संघर्षों से
और करते हैं साज़िश भविष्य के साथ
बेच ज़मीर टाटा और अंबानी को, मचाते शोर बंदेमातरम् का
और सौंपते हैं मुल्क वालमार्ट के हाथ
कहते हैं राष्ट्र करेगा तभी तरक्की, होगी जब संप्रभुता की बिक्री
आयेगा रामराज तभी , खत्म हो जायेंगे जब अल्प संख्यक सभी
बनेगा राष्ट्र तभी महान, बौने बन जायेंगे जब इंसान
तोड़ना है इनकी साज़िशें, खत्म करके आपसी रंजिशें 
मुल्क बनेगा तभी महान, मुक्त होगा जब मजदूर-किसान 
आयेगा तब नया बिहान, नहीं बनेगा बौना इंसान 
(ईमिः 24.02.2014)
380
उदितराज और पासवान के मोदियाने पर
जिन्हें जल्दी है उन्हें जाने दो
संघी गुमनामी में समाने दो
जो बचेंगे थामेंगे वही क्रांति का परचम
टूटेगा ही इन चिरकुटों से जनता का भ्रम
जागेगा ही एक दिन बहुजन आवाम 
कर देगा बहुजन धंधेबाजों का काम तमाम
खाक में मिल जायेंगे  सारे मोदी-उदित-पासवान 
शुरू करेगा बहुजन जब जनवादी अभियान
खत्म करेगा केरपोरेटी राज और जातिवाद
लाएगा शोषण-दमन से मुक्त नया समाजवाद
(ईमिः25.02.2014)









उदितराज और पासवान के मोदियाने पर

उदितराज और पासवान के मोदियाने परः

जिन्हें जल्दी है उन्हें जाने दो
संघी गुमनामी में समाने दो
जो बचेंगे थामेंगे वही क्रांति का परचम
टूटेगा ही इन चिरकुटों से जनता का भ्रम
जागेगा ही एक दिन बहुजन आवाम 
कर देगा बहुजन धंधेबाजों का काम तमाम
खाक में मिल जायेंगे  सारे मोदी-उदित-पासवान 
शुरू करेगा बहुजन जब जनवादी अभियान
खत्म करेगा केरपोरेटी राज और जातिवाद
लाएगा शोषण-दमन से मुक्त नया समाजवाद
(ईमिः25.02.2014)

Sunday, February 23, 2014

नहीं बनेगा बौना इंसान


जो तलाशते हैं सारी महानता अतीत में 
भागते हैं दूर मौजूदा संघर्षों से
और करते हैं साज़िश भविष्य के साथ
बेच ज़मीर टाटा और अंबानी को 
मचाते शोर बंदेमातरम् का
और सौंपते हैं मुल्क वालमार्ट के हाथ
कहते हैं राष्ट्र करेगा तभी तरक्की
होगी जब संप्रभुता की बिक्री
आयेगा रामराज तभी 
खत्म हो जायेंगे जब अल्प संख्यक सभी
बनेगा राष्ट्र तभी महान 
बौने बन जायेंगे जब इंसान
तोड़ना है इनकी साज़िशें 
खत्म करके आपसी रंजिशें 
मुल्क बनेगा तभी महान 
मुक्त होगा जब मजदूर-किसान 
आयेगा तब नया बिहान 
नहीं बनेगा बौना इंसान 
(ईमिः 24.02.2014)


अतिविनम्र, अति मृदुभाषी

अतिविनम्र और अति मृदुभाषी होते हैं जो
मक्कारी व छल-कपट की तिकड़में करते हैं वो.
(ईमिः24.02.2014)

सियासत

बहुत ही मुश्किल है सियासत का राज-काज
 ठगना पड़ता है इसमें अपना ही मुल्क-समाज
होती नहीं ज्ञान और मशक्कत से आज सियासत
हो न जब तक दादा-नानी की या नागपुरिया विरासत
बेचना पड़ता है ज़मीर टाटा और अंबानी को
एस्सार, वेदांता, एॅनरान और अदानी को
करते बेचारे घाटे में  मुल्क के संसाधनों का सौदा
कौड़ियों में बनाते अरबों की संपत्ति का मसौदा
बनते हैं बेचारे थैलीशाह के ज़रखरीद गुलाम
राष्ट्र-भक्ति के लिए करते हैं ये मुल्क नीलाम
करने को बुलंद सामारिक न्याय का नारा
खाना पड़ता है नेता को पशुओं का चारा
बढ़ाना है मुल्क में विदेशी पूंजी का निवेश
मानना पड़ता बेचारों को वालमार्ट का आदेश
देश का विकास करेंगे हर हाल में वज़ीर-ए-आला
कोयले की दलाली में करना पड़े चाहे मुंह काला
कराने को लोगों को दलितवाद पर यक़ीन
देना पड़ता है सेठ जयप्रकाश को जनता की जमीन
करना पड़ता है तुलसी का नाम बदनाम
हत्या-बलात्कार में लगाना है जो नारा-ए-जैश्रीराम
सियासत नहीं है काम दानिशमंद या दीन-हीनों का
है अभी यह काम पूंजी के ज़रखरीद गुलामों का
कारपोरेटी दलाली को देना होता  है जो अंजाम
करना पड़ता है जड़ से आवाम का काम-तमाम
मिट गये हिटलर हलाकू और सभी ताना शाह
जागृत जनता में होती है ताकत अथाह
जागेगा इस बार जब किसान और मजदूर
हो जायेगा क्षण में ज़र के दलालों का नशा काफूर
जागेगा ही आज नहीं तो कल ये आवाम
सियासतदार तब चिल्लायेंगा हे राम हे राम
मिट जायेगा जब पूंजी का ही वजूद
दल्ले हो जायेंगे खुद-ब-खुद नेस्त-नाबूद
तब आयेगा आवाम का असली जनवाद
गूंजेंगे दुनिया भर में नारा-ए-इंक़िलाब
इंक़िलाब जिंदाबाद ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद
(ईमिः 23.02.2014)

ल्ला पुराण 133 (संघ-विमर्श)

RSS  का वज़ूद ही मुस्लिम-विरोधी उंमादों पर टिका है. गोलवलकर हिटलर का मानस-पुत्र और राष्ट्रीय आंदोलन का दुशमन था. उसके बंच ऑफ थॉट या वि ऐंड ऑवर नेसन डिफाइंड से एक वाक्य उद्धृत करें जिससे वह युगद्रष्टा साबित हो. संघी अमूर्त उंमादों के आधार पर जनता की धार्मिक संवेदनाओं और अंधविश्वासों का शोषण करके कागपोरेट दलाली करते हैं. गोलवल्कर अंग्रेजों का पिट्ठू और मुल्क का गद्दार था.

संघ एक देशद्रोही संगठन है जिसने मुक्ति-संग्राम से गद्दारी करते हुए नवजवानों को हिंदुराष्ट्र के नाम पर बरगलाकर नफरत की गंदी राजनीति शुरु किया जिसके रणबाकुरे हत्या-लूट-बलात्कार को राष्ट्र-भक्ति मानते हैं. मैं भी नफरत और जहालत के उस सड़ांध में कुछ दिन रहा. संघ के प्रशिक्षण का उद्देश्य तो तो बंद-दिमाग तोते और भेंड़ों की जमात खड़ा करने का है लेकिन चुछ लोग जो दिमाग को इस्तेमाल करते हैं तो ज़हालत के गड्ढे से निकल जाते हैं. ज्यादातर पूरी तरह नहीं निकल पाते.

अशोक सिंघल जैसे धर्मोंमाद के सौदागर चाहते हैं कि अशिक्षित-गराबों की ही तरह शिक्षित मध्यवर्गीय हिंदू में भी इफरात में बच्चे पैदा कर लें और ज़िंदगी बच्चों को अभावों में किसी तरह पालने-पढ़ाने में खपा दे और अल्ममत में हो जाने की असुरक्षा का भय दिखाकर सिंघल-तोगड़िया-मोदी जैसी तिकड़मबाज तिकड़ियां मुल्क को कारपोरेटों को बेचने का काम निर्बिघ्न करते रहें.

सारी महानताएं अतीत में खोजना, सारी समस्यां का हल अताात में खोजने की हिमायत अनैतिहासिक तो है ही क्योंकि इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर नहीं होता और हर अगली पीढ़ी पीढ़ी तेजतर हाती है, वह पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को सहेती है और नये निर्मम करती है, यह प्रतयक्ष-प्ररोक्ष रूप से र्तमान की बेहूदगियों का अनुमोदन और भविष्य के साथ साजिश भी है.

पं.दिनेश पामडेय जी, सही संघी संस्कार हैं आपके, मैं तो जिसकी औलाद हूं वह अब नहीं रहे आपके संसकार और समाजीकरण आपकी भाषा की तमीज़ में स्पष्ट हैं. संघ ने मेरा नहीं मुल्क और मानवता को प्रदूषित किया है. आप कहां पैदा हो गये इसमें आपका कोई योगदान नहीं है इसलिए न उसमें गर्व करने की बात है न शर्म. दुर्भाग्य से लगता है आपको शिक्षक भी जाहिल ही मिले की आप और सारे संघी जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से न उबर कर पढ़े-लिखे ज़ाहिल बने रहते हैं.

आपकी भी भाषा आपके समुचित संघी संसकार चश्मदीद गवाह हैं.  संघी तो पढ़ते ही नहीं तो उनसे पढ़ने-लिखने की बात करना भैंस के आगे बीन बजाना है. अन्यथा बताएं गोल्वलकर ले बंच ऑफ थॉट में मनु के बारे में क्या लिखा है, मैंने वह भी पढ़ा है. हिटलर की भक्ति और उत्तरी-ध्रुव को बिहार-उड़ीसा में उसके भूवैज्ञानिक कुज्ञान की वि ऑर आवर नेसन डिफाइन्ड भी पढ़ा है . दीनदयाल का समग्र (अ)मानवतावाद भी पढ़ा है.

, पढ़े-लिखे तो आप हैं, मैं सिर्फ पागल. Thank you for the complement. वैसे संघी  जब मेरी बातों से बौखलाकर गाली-गलौच करते हैं यानि अपने संसकारों की भाषा में बात करते हैं और अपनी जहालत की नुमाइश करते हैं तो  बहुत अच्छे लगते  हैं.

नमो-नमो स्वाहा. मोदी की जगह जेल है. कुछ लोग लाटरी निकलने पर पगलाते हैं कुछ डिकट खरीदते ही उम्मीद में पगला जाते हैं. मोदियाये जाहिलों की हाल बाद वाली है. जाहिल इसलिए कि वे बस मोदी भक्त हैं जानते नहीं क्यों. आप जानते हों तो बता दें हत्या-बलातकार के इस फासीवादी आयोजक की एक बात जिससे वह आपका भगवान बन गयो, या भागवत ने आदेश दे दिया इस लिए. दिमाग के इस्तेमाल से ही मनुष्य जानवरों से भिन्न है, जो नहीं करते......

दैनिक जागरण दंगों में अफवाहें फैलाने का काम करता रहा है. बाबरी विध्वंस के समय विहिप के मुखपत्र बन गया था बदले में भाजपा ने इसके मालिक नरेंद्र मोहन को राज्य सभा की सदस्यता से नवाजा. आप से बौखलाए मोदी भक्त मुसलमानों के साथ आप पर हमला बोलने लगे हैं. पांडेय जी की वाल पर शामली और मुजफ्फरनगर में मोदी-मुलायम की मिली-जुला साजिश से हुई अल्पसंख्यकों की हत्याों-सामूहिक बलात्कार-आगजनी लूटपाट और जबरन विस्थापन पर या हत्यारों-बलात्कारियों की निंदा पर कभी कोई सरोकार नहीं दिखा. दुहरापन संघी संस्कृति का अभिन्न अंग है.  

मंजिलें और भी हैं

मंजिलें और भी हैं इस मंज़िल के बाद
चाहतें और भी हैं इस चाहत के बाद
खत्म नहीं होता तहेज़िंदगी चलता है सफर
दीवारें जरूरी हैं लेकिन बेदर होता नहीं घर 
पहुंच अगली मंजिल पर करो कुछ विश्राम
हो तर-ओ-ताजा छेड़ो अगला अभियान
सफर ज़िंदगी का चलता रहेगा तब तक 
मानव-मुक्ति का पैगाम गूंजेगा न जब तक.
(ईमिः23.02.2014)

Thursday, February 20, 2014

लल्ला पुराण 132

16-17 फरवरी इलाहाबाद प्रवास के दौरान फेस बुक के 2 मित्रों (छात्रों को छोड़कर) प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी और रानिश जैन से वास्तविक दुनियां मे मिलकर अत्यंत प्रसन्नता हुई, उससे भी अधिक प्रसन्नता सेमिनार में मेरी बातें सुनकर अगले दिन कई छात्रों ने मार्क्सवाद पर एक क्लास लेने का आग्रह किया और आधे घंटे में एमए और बीए के लगभग 2 दर्जन स्टूडेंट्स 4 बजे विवि अतिथिगृह पहुंच गये. और बिना मेरे थके और विद्यार्थियों के बिना पके चाय के साथ 7 बजे तक सहभागी क्लास हुई. मित्र कमल कृष्ण राय मे मिलते हुए 9.30 बजे प्रयागराज पकड़ना था. बिदा होते हुए मैं और "मेरे" स्टूडेंट्स दोनों को शायद इस गाने की याद आ रही थी कि अभी तो दिल भरा नहीं. सभी  प्रतिभाशाली और जिज्ञासु, सीखने और इतिहास के गतिविज्ञान में अपनी भूमिका तलाशने को उत्सुक. हरविंदर के पास मोटर साइकिल थी उसने कमल के घर छोड़ दिया. य़ह इन बच्चों का उन शिक्षकों को करारा जबाब है जो रोते रहते हैं कि स्टूडेंट्स क्लास ही नहीं करना चाहते. यह अवसर प्रदान करने के लिए मैं  "लोक मत, लोकहित और लोकतंत्र" सेमिनार के आयोजक -- युवा संवाद --का अतिरिक्त आभारी रहूंगा.

आनंद जी, आज की तारीख में कौन विवि पतनोन्मुख नहीं है? वहां भी बाकी जगहों की ही तरह शिक्षाविरोधी भ्रष्ट कुलपति नियुक्त होते रहे हैं.  इसकी शुरुआत 1974-75 में राम सहाय नामक एक फासिस्य किस्म के नौकरशाह की नियुक्ति से हो गयी थी. कहां के प्रोफेसर शिक्षकों की नियुक्तियों को बाप की जागीर नहीं समझते?  अभी मैं एक सेमिनार में गया था तो पता चला कि वहां कुछ   "प्रयागराज "  प्रोफेसर हैं जो दिल्ली में रहते हैं और यदा कदा प्रयाग राज से सबह आते हैं और शाम को चले जाते हैं. अभागे हैं. हमारे यहां भी कई अभागे हैं जो बहुत कम क्लास लेते हैं. ऐसे लोगों के बारे में सोचना पड़ता है कि इनका क्लास लेना विद्यार्थियों के हित में है या अहित मेें.

आशुतोष जी किसी को भी उस जगह से लगाव बना रहता हो जहां उसने जहां किशोरावस्था से युवावस्था मे पर्वेश किया हो लेकिन अंध-प्रशस्ति आत्मघाती होती है. छात्रों ने ही प्रयागराज प्रोफेसरों के बारे में बताया. बहुत से प्रोफेसर पढ़ाते नहीं और छात्र राजनीति लंपटता का पर्याय बन गयी है, छाज्ञशंघ संघर्ष के मंच से दलाली का अखाड़ा बन गया है, छात्र जागृत और आंदोलित न हुए तो स्थितियां बदतर होंगी. 

Wednesday, February 19, 2014

युवा चेतना और युग चेतना (युगचेतना 1)

17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग, दिल्ली 11007
15.02.2014
युवा चेतना और युग चेतना
ईश मिश्र
मुझे 15-16 फरवरी 2014 को राजनैतिक दलों की युवा नीति और अंतः जनतंत्र विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में युवा-संवाद द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में बोलने का निमंत्रण मिला. एक और यात्रा एवं अपने पुराने विश्वविद्यालय के नये छात्रों से मुलाकात तथा ईमानदारी से कहूं तो सिनेट हाल में श्रोता-दीर्घा में बैठने की बजाय मंच से बोलने के अवसर की संयुक्त लालचों में तुरंत हां बोल दिया. उम्र की 17-21 वर्ष की बौद्धिक बुनियाद की अवधि जिस जगह बीती हो उससे जुड़ी यादें जीवनी में खास अहमियत रखती हैं. और एक आवारा को यात्रा का बहाना भर चाहिए. इवि के एक शुभेक्षु प्रोफेसर ने आयोजकों की प्रतिष्ठा को संदेहास्पद बताया. लेकिन मैं कभी कभी आयोजकों की नीयत को दरकिनार कर श्रोताओं की चेतना को धयान में रखते हुए चला जाता हूं क्योंकि श्रोता किसी के बंधक नहीं होते और शब्दों का अपना असर होता है इसीलिए शासक वर्ग शब्दों से घबराकर उनका प्रवाह रोकता है. लेकिन फिर लगा कि इस विषय पर तो बोलने को कुछ सामग्री ही नहीं है. इतना ही कहा जा सकता है कि इन तथाकथित मुख्य धारा के राजनैतिक दलों के पास कोई युवा नीति तो है नहीं और गर्व से विरासतें ढोने वाले हमारे तथातकथित जनतंत्र में आंतरिक जनतंत्र की बात करना रेगिस्तान में मोती तलाशने जैसा है. ये अपने युवा संगठनों की युवा उमंगों को परिवर्तनकामी युगचेतना के हरकारे बनाने की बजाय उन्हें तोते और भेड़ की प्रतिगामी चेतना से लैस करते हैं जिनकी परिणति लंपटता और दलाली की छात्र राजनीति में होती है.  प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव निर्वाचित सांसद या विधायक नहीं बल्कि कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, हाई-कमान करता है, जिसके पास जनप्रतिनिधि अपना सोचने का अधिकार गिरवी रखकर वापस पशुकुल में विलीन हो जाते हैं. विवेक और चिंतन-शक्ति की ही बदौलत उपयोगी श्रम की क्षमता से  हमारे आदिम पूर्वजों ने खुद को अन्य पशुओं से अलग करना शुरू किया था और उसी की बदौलत मानव इतिहास ने पाषाण-युग से अंतरिक्ष युग की यात्रा तय की. फिलहाल अपनी तयीं मैंने विषयांतर कर लिया और इस अवसर का इस्तेमाल युग-चेतना और युवा-चेतना के अंतरविरोधों और उनकी द्वद्वात्मक एकता पर बोलने में करूंगा. अब निकलता हूं भतीजे की सगाई समारोह में उपस्थिति दर्ज कराते हुए स्टेसन. बाकी प्रस्तुति के बाद इवि के अतिथिगृह में.

21.02.2014
बुढ़ापे की आवारागर्दी घातक होती है लेकिन कुछ जन्मजात प्रवृत्तियां मृत्यु तक साथ देती हैं. कहां तो सोचा था कि पेपर लिख कर जाऊंगा पर भूमिका से आगे बात बढ़ नहीं पायी. और सोचा था यात्रा संसमरण वहीं लिख लूंगा लेकन 18 को लौटने के बाद स पर आज रात ही बैठ पाया.

नई दिल्ली से प्रयागराज समय पर चली और कुहरे का कुछ अंदेशा नहीं था. भोर में नीद खुली तो पतो चला कि अभी कानपुर भी नहीं आया था और गाड़ी कुहरे की वजह से मंद गति से चल रही थी. लोगों ने बताया 12 बजे से पहले इलाहाबाद पहुंचने का कोई चांस नहीं था और मुझे दिस सत्र में बोलना था वह 10 बजे से था. लेकिन धैर्य से पहुंचने की प्रतीक्षा के अलावा कुछ कर भी नहीं सकता था. सभी लोग जग गये और बतियाने लगे मैं अपने प्रजेंटेसन के बारे में मनन करते हुए बातों सुन रहा था. उस कूपे में संयाग से सभी इलाहाबाद के पूर्व छात्र-छात्राएं थे. दो यूनिवर्सिटी के पर्व-क्रिकेटर जो खेल कोटे से क्रमशः बैंक और आबकारी विभाग में नौकरी करते हैं और एक की गृहणी, एक एनजीओ क्रांतिकारी, एक विवि के वाणिज्य के किसी प्रोफेसर की पत्नी (यही परिचय दिया था) और एक युवा वकील. गलती से एक इक ऐर यात्रा में एक बनाम लगभग सब बहस में उलझ गया. एनजीओ क्रांतिकारी ने मेरा परिचय पूछा और मेरी यात्रा का उद्देश्य जानने के बाद आम आदमी पार्टी पर बात करने लगे और बात भ्रष्टाचार पर आ गयी और उनमें से आबकारी विभाग वाले पूर्व क्रिकेटर ने राजनैतिक दबाव और सरकारी ससन ततततत  अफसरों की भ्रष्ट होने की मजबूरी का रोना रोने लगे और हाल में ही जमानत पर रिहा हुए, इविवि के पूर्व छात्र और आईएयस टापर किसी प्रदीप शुक्ल की चर्चा होने लगी. मैंने कहा भ्रषटाचार की कोई मजबूरी नहीं होती बल्कि भ्रष्ट चेतना शिक्षा समेत भ्रष्ट समाजीकरण का नतीजा है, और यह कि आईएयस सा प्रोफेसर की आर्थिक स्थिति के जो लोग बिकते हैं वे अभागे, दयनीय, निंदनीय और जाहिल एक साथ हैं. अभागे इस लिए कि ये मुफ्त में थैलीशाहों के ज़रखरीद बन जाते हैं क्योकि फन्हें आम जनती की गाढ़ी कमाई से इतना पैसा मिलता है जो इस जीवन में उन्हें एक आरामतलब जीवन-शैली के लिए पर्याप्त से अधिक है. ज़मीर की बिक्री की आमदनी वे वित्तीय संस्थानों में निवेश करते हैं यानि उन्हीं थैलीशाहों को वापस कर देते हैं, या फिर कालले धन के रूप में सामाजिक संपत्ति को मृत पूंजी में तब्दील कर देते हैं. दयनीय इसलिए कि इंसान जितनी भी बार गिरता है, अंशतः अपनी अंतरात्मा को कत्ल करता है. अंत में, पैसे के गुमान में, पकड़े जाने के निरंतर भय में, अंतरात्मा से मुक्त खोखली, दयनीय ज़िंदगी जीता है. निंदनीय इसलिए कि भ्रष्टाचार की सबसे तगड़ी मार सवसे समाज के निचले पायदान पर सबसे अधिक पड़ती है, गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई तेजी से बढ़ती हैं. जाहिल इस लिए कि उसको इतना भी ज्ञान नहीं है कि पूंजीवाद में संचय सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है, बाकी सब संचय के भ्रम में जीते हैं. तभी ऊपरी बर्थ से उतरते हुए युवा वकील ने नाराजगी के साथ कहा कि सबकी अपनी अपनी आकांकाक्षाएं होती हैं और उनके आदर्श हराश सालवे हैं जिनके पास तनी ताकत है कि अंबानी उनका बाग्यशाली गाउन निजी जहाज मे मंगवाता है. विमर् की बाकी बातें बाद में पुस्तक मेले से लौटने के बाद.   


 युग चेतना के असर में इस विमर्श मैं एक तरफ पड़ गया, बाकी सब दूसरी तरफ और आस-पास के अन्य लोग उनके सौन समर्थक. एनजीओ वाले सहयात्री पाले की विभाजन रेखा पर बैठे रहे. पूंजीवादी युग चेतना के तहत धन सामाजिक प्रतिष्ठा का निर्धारक बन गया है और ये भ्रष्ट जाहिल शर्मसार नहीं महसूस करते. युग चेतना आर्थिक विकास के खास चरण के उत्पादन के सामाजिक संबंधों के अनुकूल बनती है और शासक वर्गों के विचार शासक विचार भी होते हैं जो राज्य के विचारधारात्मक औजारों द्वारा, निष्पक्ष विचार के रूप में प्रसारित किए जाते हैं. कहा जाता है कि पूंजीपति और मजदूर के बीच आर्थिक गुलामी का अनुबंध, वर्ग संबंधों से परे दो स्वतंत्र और समान व्यक्तियों के बीच स्वैक्षिक अनुबंध है. हां, श्रम के साधनों से मुक्त श्रमिक दो अर्थों में स्तंवत्र है – बाजार भाव पर श्रम-शक्ति बेचने को और भूखों मरने को, जिसके लिए वह बिल्कुल स्वतंत्र है. यह बाजार भाव, ऐडम स्मिथ के अनुसार, बाजार के अदृश्य हाथ तय करते हैं. 

Silence of sane majority

Silence of sane majority is as criminal and its indifference as unethical as the verbosity and indulgence respectively of the insane minority. A tacit alliance.

Tuesday, February 18, 2014

मोदी विमर्श 13

अजातशत्रु की पित्रिहंता संस्कृति का वाहक मोदी टाटा और अंबानी का ही नहीं ओबामा का भी ज़र-खरीद दलाल है अपने मानस पिताओं बाजपेयियों और अडवानियों की ही तरह.

आपकी भाषा की तमीज और मोदियापन खुद-ब-खुद जहालत का नमूना है.

संघियों का सम्मान घोर अपमान है विवेकविहीन जाहिलों से भाषा की तमीज या सम्मान की संस्कृति की उम्मीद रेगिस्तान में मोती की तलाश है.

कुत्तों के भौंकने से कारवानेज़ुनून नहीं रुकता. मोदी जैसे जाहिल फेकू और उसके बेज़मीर, बद्दिमाग चमचे अपना भविष्य सोचें जब मानवता के विरुद्ध उनके एक एक गुनाहों की सजा  जनता दौड़ा दौड़ाकर देगी. वैसे तो छींके बिल्ली के भाग्य से टूटते हैं लेकिन कहीं कुत्ते के ही भाग्य से टूट गये, बटेर तो आंख के अंधों के हाथ लगती है लेकिन अगर दिमाग के अंधों के हाथ ही लग गयी, लेकिन हिटलरशाही को को झेलने और उसे नेस्त-नाबूद कर देने वाले आवाम के लिए  मोदी जैसे उसके मानसपुत्र  और मिनी संस्करण किस खेत की मूली हैं? हिटलर को बंकर में खुदकशी करनी पड़ी थी, देखो य़ह कहां करता है? थोड़ा हास्य करते हैं तो यदि आपके पास दिमाग है और उसके इस्तेमा ल की झेझट कर सकते हैं तो हत्या बलात्कार के इस शातिर नायक का एक गुण बतायें जिससे यह आपका भगवान बन गया?

ये तथाकथित  धर्मात्मा ही तो फासीवादी सोच के पुरोधा होता है. नस्ल/धर्म  फासीवाद का  आजमाया हुआ औजार है.एक विचारधारा है जो कहीं भी हो सकती है.  यह एक प्रवृत्ति है जाओ बजरंगी लम्पटों के हुडदंग में साफ़ दिखती है और मोदियापा से ग्रस्त पढ़े-लिखे मूर्खों के कुतर्कों में परिलक्षित होती  है, इतिहासबोध से वंचित नफ़रत की फसल बोने वाले "साहब" की बात ही छोडिये. .

युगचेतना के असर में लोग विवेक के इस्तेमाल से बचते हुए पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते और अपने को वर्ग चेतना से वंचित कर कुतर्क करते हैं, इनकी भी मे में है. निराश नहीं हूं जनपक्षीय जनचेतना का उभार अवश्यंभावी है. इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर नहीं होता मोदियापा इतिहास को पीछे ले जाने की नाकाम साज़िश है, फिलहाल हर अमनपसंद नागरिक का कर्तव्य है कि जनसाधारण को इतिहास के विरुद्ध मोदी-टाटा-- ... की शह पर हो रही इस घिनौनी साज़िश से वाक़िफ करें. यह पब्लिक है सब जान जायेगी.

Friday, February 14, 2014

प्रेमोत्सव पर जन्मी



( प्रतिभा केजन्मदिन पर प्रतिमा के सौजन्य से)

छोड़ दिया था कविता लिखना, क्योंकि थीं सब अति-साधाण
जन्मदिन पर लिखूं क्या उसके, है जो इंसान  असाधारण 
लगाया तुमने अब शब्दों की कंजूसी का अनुचित इल्जाम
करता हूं टूटे-फूटे शब्दों में प्रेमोत्सव पर जन्मी प्रतिभा को सलाम
करता हूं जन्मदिन पर दिल से कामना  कि भरो एक ऊँची उड़ान 
नतमस्तक हो जायें बिघ्न-बाधाओं के सब आंधी-तूफान
(ईमिः14.02.2014) 

Tuesday, February 11, 2014

मगन गहन चिंतन में

कौन है यह कन्या मगन गहन चिंतन में
करती बेटोक विचरण ख़यालों के उपवन में?
[ईमि/11.02.2014]
बनाकर अकेलेपन को सुखद एकांत
सोच रही है लिखने को नया वृतांत
रचने को एक एक नये् युग की कहानी
हागा नायक आमजन नहीं राजा रानी
होगा अंत जिसमें मर्दवादी वर्चस्व का
और थैलीशाही शोषण के सर्वस्व का
आयेगा ही एक सुंदर नया जमाना
गायेगे मिल सभी आज़ादी का तराना
(ईमिः4.05.2005)
अब पूर्वकथ्य नहीं लिखना है पूरी कहानी
दिखाएगी ही कुछ करके विलक्षण मृगनयनी


Wednesday, February 5, 2014

संघी गर्व

करता हिंदू होने पर संघी गर्व
मनाता हत्या-बलात्कार का पर्व
है मनु महराज न्यायविद सबसे बड़ा  इनका
वर्णाश्रमी मर्दवाद है अनमोल पैगाम जिनका
पैदा करवाता जो ब्रह्मा से दो तरह के लोग
कुछ बहायें पसीना कुछ करें भोग
कुछ को माथे और बाजू से
लैस करके पोथी-तलवार-तराजू से
कुछ को जंघे और पांव से करवाता पैदा
गुलामी की बेड़ियां ढोयें जो सर्वदा
जो जन्म की अस्मिता से उबर नहीं पाता
जीववैज्ञानिक दुर्घटना को इष्ट मानता
पढ़-लिख कर भी वह जाहिल रह जाता
पूर्वाग्रहों का ज्ञान की खान बतलाता
मानवीय विवेक को धता बताता
शर्म की बात पर जो गर्व करता है
बेड़ा इतिहास का गर्क करता है
[ईमि/06.02.2014]

Tuesday, February 4, 2014

वसंत 2

वसंत 2
देखा जब इस वसंत की पहली भोर
हो गया आज कुछ जल्दी अंजोर
सूरज ने उगने का पूर्वाभास दिया
अंधेरों की दुनिया को उदास किया
आम के बौर पर पड़ा जब प्रकाश
सुनहरा हो गया सारा आकाश
घास पर सुबह की जगमगाती धूप
सुनहरी चादर से जैसे तुपा गयी दूब
धूप में सरसों के पीले फूल पड़े मचल
चहचहाती चिड़ियों में मची हलचल
मटमैला चीकू सुनहरा दिखने लगा
पके नीबू से मिलाप करने लगा
हूं मैं नास्तिक व वंचित उत्सवधर्मिता से
मनाता हूं वसंत का पर्व मगर तत्परता से

(ईमिः04.02.2014)

Monday, February 3, 2014

सरसों के फूलों की खुशबू

वसंत 1
देखे हैं अब तक कितने ही वसंत
यादों की जिनके न आदि है न अंत
याद आ रहे हैं बहुत आज किशोर वय के बसंत
होते थे मन में भविष्य के सपने अनंत 
 रमता था मन जब आम के बौर और ढाक की कलियों में
नीम की मंजरी और मटर की फलियों में
आता वसंत मिलता ठिठुरती ठंढ से छुटकारा
बच्चे करते समूहगान में मां सरस्वती का जयकारा
निकल शीत के गर्भ से जब ऋतु वसंत आती
धरती को उम्मीदों की 
थाती दे जाती 
सुंदर कविता  की चादर चढ़ाकर कर देती और सुंदर धरती
भूलती  नहीं  कभीसरसों के फूलों की खुशबू की मस्ती 
याद आते हैं गेहूं-चना-मटर के खेतों की मेड़ों के टेढ़े मेढ़े रास्ते 
जाते थे स्कूल करते हुए मनसायन और खुराफातें
पहला पड़ाव था मुर्दहिया बागखेलते वहां लखनी या शुटुर्र 
करते हुए इंतजार उन दोस्तों का गांव थे जिनके और भी दूर
पहुंचते ही उन सबके जुट जाता हम बच्चों का एक बड़ा मज्मा
मिलते और लड़के अगले गांवों में बढ़ता जाता हमारा कारवां 
पहुंचते जमुना के ताल पर था जो हमारा अगला पड़ाव 
उखाड़ते हुए चना-मटर -लतरा करते पार कई गांव 
जलाकर गन्ने की पत्तियां भूनते थे हम होरहा जहां
और गांवों के लड़के कर रहे होते पहले से इंतज़ार वहां 
गाता-गप्पियाता चलता जाता था हमारा कारवां 
रुका फुलवरिया बाग में अंतिम पड़ाव होता था जहां 
वहां से स्कूल तक हम सब अच्छे बच्चे बन जाते 
रास्ते में क्योंकि कोई-न-कोई मास्टर दिख जाते 
इतनी क्या क्या बातें करते होंगे उस उम्र के बच्चे 
याद नहीं कुछ भी लेकिन थे नहीं कभी हम चुप रहते. 
किसी को भी मिलता है ज़िंदगी में एक ही बचपन 
रमता जब अमराइयों और सरसों के फूलों में मन
(ईमिः 03.02..2014)



क्षणिकाएं 15 (361-370)

361
बवफा-बेवफा से परे ज़िंदगी एक बेशकीमती कुदरती इनायत है
वफाई-बेवफाई का बात, आत्मरत इंसानों की बनावटी रवायत है
वफादारी है कुत्तों की प्रवृत्ति, विवेकविहीन, भावुक अंतर्ज्ञान की
जीना है ग़र सार्थक ज़िंदगी, लिखना पड़ेगा अफ्साना हक़ीकत के संज्ञान की
होती नहीं बेवफा ज़िंदगीहै ये फसाना किसी नादान इंसान की
362
तुम्हें नग्मा कहूं कि ग़ज़ल या फिर ताजी नज़्मों की फसल
हो तुम तो मेरे लिए एक पहेली मेरी गज़लों की नायाब सगल
363
मुझे बचपन से ही भाती है ताजी कली
इसीलिए लगती हो तुम मुझे इतनी भली
आवारा हूं जन्मजात भौरों की तरह
खींचती कलियां हैं मुझे चुम्बक की तरह
मिलीं हैं अतीत में कई कलियां उदार
अब तो समझती हैं वे मुझे एक वृद्ध भ्रमर
मनमानी तो मैं कभी करता नहीं
364
करो पैदा आजादी का जज्बा, तोड़ दो हर तरह का कब्जा
कब्जे और मिल्कियत की बात, नहीं है कोई कुदरती ज़ज्बात
पुरुष को समर्पण स्त्री सर्वस्व का, है नतीजा मर्दवादी वर्चस्व का
वर्चस्व के रिश्ते में होता शक्ति का गुमान, पारस्परिक समता में मिलता सुख महान
मासूम हूं समझता नहीं कब्जे की बात, जनतांत्रिक रिश्तों में होती दिलों की मुलाकात
(ईमिः01.02.2014)
365
वह शाम थी हमारी आखिरी मुलाकात की शाम 
उसके बाद मिले तो देने को आखिरी लाल सलाम
खो गया किन बादलों में जगमगाता खुर्शीद 
छोड़ गया पीछे अनगिनत बिलखते मुरीद 
क़ातिल की बेचैनी का सबब है अब नाम उसका
फिरकापरस्ती से फैसलाकुन जंग का पैगाम उसका 
जाने को तो जायेंगे हम सभी एक-न-एक दिन 
कलम रहेगा सदा ही आबाद उसका लेकिन 
काश! वह कुछ दिन और  न छोड़ता यह दुनिया 
और भी समृद्ध होती इंकिलाबी इल्म की दुनिया 
अमन-ओ-चैन का था वह एक ज़ुनूनी रहबर 
यादों के अनंत कारवां में खो गये जनाब गब्बर
[ईमि/01.02.2014]
366
उठो मेरी बेटियों, करो बुलंद नारे नारीवाद के
तोड़ो खूनी पंजे मर्दवाद के
ये रातें हैं, ये सड़कें हैं आपकी, नहीं बलात्कारी के बाप की
छोड़ो मत निडर घूमने की बात, भयमुक्त कर दो दिन और रात
सहो मत प्रतिकार करो, मर्दवाद के दुर्ग पर लगातार प्रहार करो
विचरण करो सड़कों पर होकर निडर, भाग जायेंगे कायर दरिंदे भय खाकर
(ईमिः01.02.2014)
367
मत बहाओ अश्क इस बात पर कि बेखुद है खुदा
करो पकड़ मजबूत पतवार पर होने न पाये वो ज़ुदा 
उतारा है जब कश्ती मंझधारों में करो खुद पर भरोसा
खुदा एक दिमागी फितूर है छोड़ो उसकी आशा 
कांटों पर  चलकर आये हो नहीं हुए निराश 
दर-दर की ठोकरों को भटकने न दिया पास 
नभ में चमक रही थी चपला फिर भी तू तनिक न बिचला
ओलों की बूंदाबादी में उदधि थहाने था जब निकला 
कर जाओगे पार मंझधार  बनाए रखो हिम्मत 
करो इरादों को बुलंद गैरजरूरी हो जायेगी रहमत
दिखाओ अदम्य साहस सहम जायेगा तूफान
हों जज़्बे मजबूत तो क्या नहीं कर सकता इन्सान 
[ईमि/02.02.2014]
368
बनाओ नया मकान इन खंडहरों पर 
पुराने को तो गायब होना ही था 
(ईमिः03.02.2014)
369
होता है मुश्किल दो वक़्त का गुजारा 
हड़प लेता है थैलीशाह माल हमारा सारा
काफी है धरती पर जरूरतों के लिए सभी के
नाकाफी है मगर सब लालच के लिए किसीके 
बदलने ही होंगे लूट वो नाइंसाफी के हालात 
कोई करे फाका और कोई करे अन्न बर्बाद
इन खंडहरों पर तो बनाने ही हैं नये मकान 
करना पडडेगा अन्याय से भीषण घमासान 
जीतेंगे ही हम क्योंकि हमारे इरादे हैं साफ
चाहते हैं दिलाना मानवता को इंसाफ
(ईमिः03.02.2014)
370
पिछड़ गये हैं चूहा दौड़ मे जो आज
बनायेंगे एक दिन एक नया समाज
बदलेंगे सरमाये का राज-काज
लायेंगे किसान मजदूर का राज
जरूरी शर्त है मगर उसके आगे
पहले ज़मीर और आवाम जागे 
करना पड़ेगा जनवादी चेतना का प्रसार
तोड़नने पड़ेंगे पुरातन दकियानूसी विचार
(ईमिः03.02.2014)