Saturday, May 31, 2014

मार्क्सवाद 2

ज़ज्बा को सलाम, बनाए रखना है ये ज़ज़्बा, आगे बड़ी लड़ाइयां हैं. कॉ. हमें (जो भी अपने को वामपंथी समझते हैं) गंभीर आत्मावलोकन की आवश्यकता है.अस्तित्व में आने के शुरुआती दौर में, 1920 और 30 के दशकों में अंग्रेजी सरकार सबसे बड़ा खतरा कम्युनिस्टों को मानती थी और कम्युनिस्ट पैर्टी को गैर कानूनी घोषित करके पूरी पार्टी पर ही 2 मुकदमें (कानपुर और मेरठ षड्यंत्र मामले) चलाए. अंतर्राष्ट्रीयता का आलम यह था कि मेरठ केस में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन के 2 कॉमरेड भी बंद थे जिन्होने औपनिवेशिक सरकार की सारी शर्तें ठुकराकर अपने हिंदुस्तानी कॉमरेडों के साथ जेल यातना चुना. संयुक्त वाम के प्रभाव ने गांधी के उम्मीदवार को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर हरा दिया था. सत्ता हस्तांतरण के बाद, To wreck from within के बहाने क्रमशः  मोहन कुमारमंगलम और अशोक मेहता थेसिस के तहत कई कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट नेताओं के कांग्रेस में जाने के बावजूद, संसद और विधान सभाओं में वामपंथी ही मुख्य विपक्षी थे. सीपीआई चुनावी मंच का इस्तेमाल की बजाय ख्रुस्चेव-ब्रजनेव के निर्देश में चुनावी पार्टी बन गयी और अंततः कांग्रेस की पिछलग्गू और आपात काल के बाद बंगाल और केरल में सरकार का इस्तेमाल जनता का जनवादीकरण करने की बजाय सत्ता भोग में बाकी चुनावी पार्टियों के मात देना लगीं और नष्ट हो गयीं. नक्सलबाड़ी के स्वस्फूर्त क्रांतिकारी उभार के बाद क्रांतिकारी आंदोलन और दमन पर भी कभी खुली बहस नहीं हुई और उसकी विरासत के 2 दर्जन के लगभग दावेदार हैं और लिबरेसन का समर्थन आधार 1980 के दशक के अंतिम सालों में जितना था उससे आगे नहीं बढ़ा. यह किसी पार्टी की आलोचना नहीं, आत्मालोचना है. दुनिया भर में दक्षिणपंथी उभार के मद्देनज़र दुनिया के वामपंथियों को आत्मावलोकन और पूंजी के वर्तमान भूमंडलीय चरित्र की पुनर्व्याख्या और सहमति के मुद्दों पर व्यापक वाम एकता की जरूरत है. गैर-पार्टी वामपंथियों को भी अपनी भूमिका तय करनी होगी. आज एक नये इंटरनेसनल की जरूरत है.

Friday, May 30, 2014

रश्म अदायगी में थामना पल्लू

रश्म अदायगी में थामना पल्लू तौहीन है मुहब्बत की
दिल-ओ-दिमाग के मेल का ख़लूस है इज़्ज़त उसकी
(ईमिः31.05.2014)

Thursday, May 29, 2014

प्यार का दौरा

प्यार का दौरा पड़ता है तो ऐसा ही हो जाता है
दिल सोचता है और दिमाग आराम करता है
दुनिया की जनसंख्या हो जाती है सिर्फ एक
हो जाती हैं गायब कायनात की छवियां अनेक
(ईमिः29.05.2014)

Education annd Knowledge 3

Spanking or any physical or verbal abuse to children "in their own best interest" is serious social crime and causes them irreparable long term damage that cumulatively results into huge social damage in terms of channelization of social creative energy. Family,  the first institution to breed unfreedoms and inequalities, is also first institution to instill corruption in children and the next is school. We, as children, feel  pain and agony being ill treated by parents and/or teachers but when we become parents and teachers (I am both), we not only do not juxtapose and  comprehend the sense of humiliation of the tender soul but transfer our pain and agony to our children and the sequence continues

खुदा एक वहम है भूत की तरह

दर्द-ए-दिल की दवा का क्या काम
मिल गया जो खुदा कोई
वैसे राज की बात है कि
खुदा एक वहम है भूत की तरह
[ईमि/29.05.2014]

Wednesday, May 28, 2014

क्षणिकाएं 23 (441-50)



441
शुरू कर दिया है भरम तोड़ना उसने
हवाले-खाक़ कर दिया दुकानें बाड़मेर में
नहीं है वैसे इसमें बजरंगियों का हाथ
कांग्रेस के भाजपा सांसद की करामात
आगे आगे देखिए अच्छे दिनों के हालात
जुबान खोलने पर पड़ सकती है लात
(ईमिः18.05.2014)
442
 मिल जाते तुम तो खुदा हो जाते
इश्क-ए-जहाँ से नावाक़िफ ही रह जाते
मिल जाते जो तुम शुरू कर देती इबादत
दिमाग के इस्तेमाल की न पड़ पाती आदत
मिले न तुम तो मिली मुकम्मल कायनात
जश्न-ए-जहां में बीतते हैं दिन-ओ-रात
मिलते हैं वरदान अभिशाप के भेष में
मुहब्बत मिल जाती है वीराने देश में
वैसे तो इसका उल्टा भी हो सकता है
अच्छे के भेष में बुरा भी आ सकता है
छोड़ते है यहीं मगर ये बुरी बात
आओ करते हैं एक नई मुलाकात
ज़ुनूं में लेकर चलें हाथों में हाथ
मिलें कारवाने-इंकिलाब के साथ
मजा ही अलग इश्क का जमाने से
शामिल महबूब का भी इश्क जिसमें
शुक्र है कि खोजले पर तुम न मिले
खुदाई-ओ-बंदगी की ज़िल्लत से बच निकले
(हा हा बेतुकी तुकबंदी हो गयी.)
(ईमिः22.05.2014)
443
खुदाई-ओ-बंदगी की उबाऊ ज़िल्लत से दिगर
एक और गड़बड़ होती तुम मिल जाते अगर
एक की आबादी में सिमट जाती कायनात
शेष हो जाती अर्जुन के लक्ष्य का व्यर्थ भाग
(ईमिः22.05.2014)
444
याराना की यादें  होती हैं दोतरफा सदा
एक तरफ रुकी तो दूसरी तरफ भी सफा
(ईमिः25.05.2014)
445
लिखना है एक कविता इस आत्म-मुग्ध तस्वीर पर
इसके अंदर छिपी अनंत संभावनाओं की तासीर पर
चाहा था इसने बचपन में करना वर्जनाओं से विद्रोह
तोड़ न पाई तब मगर समाजीकरण के संस्कारों का मोह
पड़ गयी थी पूर्वजों की परंपरा तब सोच पर भारी
बढ़ती रही स्वाभिमान से  आगे कभी हिम्मत न हारी
करती रही है योगदान नारी प्रज्ञा-दावेदारी के अभियान में
करके मानवता की सेवा जीते हुए ज़िंदगी सम्मान से
मानव चेतना का स्तर होता है विकास के चरण के अनुरूप
मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलता विकास का स्वरूप
अनंत को नापती ये आंखें और आत्माश्वस्त मुस्कान
देती हैं संकेत भरने की ऊंची एक नई इंक़िलाबी उड़ान
छिपी है इसकी भावप्रवण मुद्रा में एक नई अंतर्दरृष्टि
करेगी मानव समाज में जो समानुभूति की वृष्टि.
(ईमिः 25.05.2014)
446
सच मरता नहीं कितना भी बढ़ जाये झूठ का कुन्बा
अकेले सच में होता है सारे  झूठों को झुकाने का ज़ज़्बा
(ईमिः25.05.2014)
447
जंग की रीतियां रुकी नहीं, बदलती रही हैं
आखिरी जंग होगी, जंग की रीति के खिलाफ
(ईणिः26.05.2014)
448
इंसानों में कमी है इंसान की, है दुनिया में तोतों की भरमार
बचकर कष्ट से दिमाग लगाने के, करते हैं रटा-रटाया मंत्रोच्चार
जहमत है बनाने में नय़े रास्ते, चलते हैं आंख मूंद कर भेड़चाल
तोता बोेलता है सिर्फ वही , जो उसे सिखाया जाता है
गड़ेरिया बैठाता भेंड़ उस खेत, जहां से पैसा हाता है
जबतक बने रहेगे लोग, यंत्रचालित तोते और भेड़ें
करते रहेंगे राज मुल्क पर, बहेलिए और गंडेरिए
(ईमिः27.05.2014)
449
सुनता नहीं  जब दिमाग की बात दिल हो जाता है बेलगाम
बह कर इच्छा के आवेग में कर बैठता है आत्मघाती काम
वैसे तो होते नहीं अलग-अलग दिल-ओ-दिमाग के मुकाम
दोनों की द्वंद्वात्मक एकता है देती मानव क्रीड़ा को अंज़ाम
ज़िंदगी का वजूद है सबूत है कि निरंतर है क्रियाशीलता
बनती हैं काम वे क्रियाएं टपके जिनसे सृजनशालता
स्वांतः सुखाय सृजन है बर्बादी दुर्लभ प्रतिभा की
सच्चे सृजन का मक्सद है समृद्धि मानवता की
(27.05.2014)
450
धूप में चलने की आदत है कारवानेजुनून को
बेपनाही के मौज में पनाह की जरूरत नहीं.
(ईमिः28.05.2014)

क्षणिकाएं 22 (431-440)



431
आयेगा ही एक नये सहर का वह मंजर
मुक्त होगी मानवता होगा वह अद्भुत प्रहर
मुक्त होंगे मनुवादी जड़ता से नारी-ओ-नर
रचेगी ही यह कन्या एक इतिहास इतर
जब तोड़ेगी यह सारी मर्दवादी वर्जनाएं
और रचेगी एक नए वेद की नई ऋचाएं
खुद होगी रचइता और पात्र नये वृत्तांत का
करेगी उद्घाटन इस अंधेरे युग के अंत का
पूर्वकथ्य है इसका नारी प्रज्ञा-ओ-दावेदारी
बौखला रहे हैं जिससे मर्दवाद के पंसारी
आयेगा ही वह सुंदर-स्वतंत्र नया विहान
मिटायेगी मनुवाद का नाम-ओ-निशान
साथ होगे रहनुमा-ए मजदूर किसान
भोग्या-पूज्या नहीं होगी एक मुकम्मल इंसान
यह कन्या कॉफी नहीं बनाएगी
इंकिलाब करेगी
सलाम
432
कौन है यह कन्या मगन गहन चिंतन में
करती बेटोक विचरण ख़यालों के उपवन में?
बनाकर अकेलेपन को सुखद एकांत
सोच रही है लिखने को नया वृतांत
रचने को एक नये् युग की कहानी
होगा नायक आमजन नहीं राजा रानी
होगा अंत जिसमें मर्दवादी वर्चस्व का
और थैलीशाही शोषण के सर्वस्व का
आयेगा ही एक सुंदर नया जमाना
गायेगे मिल सभी आज़ादी का तराना
(ईमि:4.05.2005)
433
कई बार सोचा लिखने को एक कविता
इस मनमोहक तस्वीर पर
आंखों में संचित तक़लीफ के समंदर
और चेहरे पर लिखी जुझारू तकरीर पर
 ऊबड़-खाबड़ रास्तोंं को जीतने के बुलंद इरादों पर
हासिल-ए-मंजिलात के आत्मजयी जज़्बातों पर
गगनचुंबी अरमानों की अलमस्त मुस्कान पर
हर बार हो जाता हूं मायूस यह सोचते हुए
कि काश मैं भाषाविद होता या भाषा ही समृद्ध होती
मनोरम तस्वीर की संपूर्म काव्य-अभिव्यक्ति केलिए
खत्म हो जाएगा जिस दिन शब्दों का अकाल
बुनूंगा इस तस्वीर पर जरूर एक शब्द जाल
(ईमिः02.05.2014)
434
नहीं लगायी थी आग उसने प्यार की तैयार फसल में
फेंका था सिर्फ एक तीली,  मुजरिम हैं जेठ गर्म हवाएं
नहीं बोया था उसने  बीज नफरत के
अपने आप उग आई  नफरत की फसल जंगल की तरह
उसने सींचा भर था खाली जमीन नस्ल-ए-आदम के लहू से
गुनहगार है धरती
कोटता जा रहा है बिना बोए  फसल-दर-फसल तबसे
कछार में गन्ने की पेड़ी की तरह
बस सींचता रहता है इसे यदा कदा
(ईमिः05.05.2014)
435
फेकू को बनारस फेंक देगा कच्छ की खाड़ी में
अंबानी की लक्कड़बाड़ी मे अदानी की फुलवाडी में
खींच लाएगा वहां से आवाम उसे, देगा हर अपराध का अंज़ाम उसे
बना देगा आवाम उसकी रेल , जगह है उसकी केवल जेल
(ईमिः07.05.2014)
436
सुबह सुबह दिला दी उस कमबख्त की यादें
याद आने लगी  तल्ख-ओ-अज़ीज सभी बातें
पड़ती हैं जब भी कमी अफ्साने में अल्फाज की
पता चलती है कीमत तब उसकी इम्दाद की
चाहिए जब बात पर बेबाक़-ओ-तल्ख़ तंक़ीद
सुनाई देती है वाह वाह या शर्म शर्म संगीत
लोग अभिव्यक्ति के खतरे क्यों नहीं उठाते
यह सुन लोग करते हैं उसके हस्र की बातें
होती है जब किसी द़ानिश की दरकार
दिखती है यहां तोते-भेड़ों की कतार
साथियों को याद करना भी है शायद स्वार्थ
अभूतपूर्व सुख, जो देता है परमार्थ
(ईमिः 09.05.2014)
437

 झुकता नहीं ये सर
हम समझते हैं हवा का रुख, नहीं देते पीठ मगर
हैं हम सबके सचमुच की आजादी के पक्षधर
गुलामी नहीं हो सकती किसी इंसान का हक़
जबरन करेंगे आज़ाद मनसा गुलामों को भरसक
हम  देते हैं दिशा समय के सावन को बांधते नहीं
साध्य का हुनर सिखाते हैं किसी को साधते नहीं
कहते नहीं ज़ुल्मत को जिया और सरसर को सबा
 करते मेहनतकश की ग़मख़ारी देते नहीं धोखा
है दुश्मनी हमारी साम्राज्यवादी ज़र के निज़ाम से
न कि उसके किसी टुच्चे-मुच्चे ज़रखरीद गुलाम से
मानता नहीं ज़र के ग़ुलाम को मुल्क का खुदा
झुकता नहीं ये सर हो जाये भले ही धड़ से ज़ुदा
लगा देगें खाकनशीनों को जगाने में उम्र सारी
हो जायें हाथ कलम भले शायर न बनेगा दरबारी
(ईमिः13.05.2014)
438
करोगे जितनी कोशिस तोड़ने की कलम हमारा
उतना ही होगा बुलंद इंक़िलाब का युगकारी नारा
(ईमिः13.05.2014)
439
कसा मुल्क की गर्दन पर फासीवाद का फंदा अगर
कत्ल हो जायेंगे संघर्ष-ओ-निर्माण के सभी स्वर
हो गया दुनियां में मुल्क जो एक बार बौना
आसानी से बन जायेगा साम्राज्यवाद का खिलौना
इसीलिए पहले ही तोड़ देना है इस खूनी पंजे को
तोड़ देगा वरना यह हर दिल-ओ-जिस्म और मुल्क को
(ईमिः14.05.2014)
440
आगे आगे देखिए अच्छे दिन के करामात
बन जाएगा एक-न-एक दिन भारत गुजरात
किये हैं खर्च जिनने इस छवि में हजारो करोड़
वसूली में उसकी लेंगे सारा मुल्क निचोड़
इतिहास है गवाह मानवता की तबाही का
देश बन जाये जब पर्याय किसी की वाहवाही का
जर्मनी में ही नहीं आयी थी फासीवाद की आंधी
इस मुल्क में भी हुई थी एक इंदिरा गांधी
इतिहास खुद को कभी दुहराता नहीं
प्रतिध्वनियों से लेकिन बाज आता नहीं
लग रही है यह प्रतिध्वनि बहुत भयावह
टकराकर हिमालय से लौट जायेगी वह
(ईमिः 16.05.2014)

बागियों में अदावत भड़काता हुक़्मरान

बागियों में अदावत भड़काता हुक़्मरान
गरीब ही गरीब को करता लहू-लुहान
एक से दूसरे को खतरा बताता हुक्मरान
कराता है दोनों में वीभत्स घमासान
छिड़कता ज़ख़्मों पर फिर नमक हुक्मरान
लूटता दोनों के खून-पसीने का मान
अफवाहों से गफलत फैलाता हुक्मरान
होगा ही कभी लोगों को इस चाल का भान
तब नेस्त-ए-नाबूद हो जायेगा हुक्मरान
करेगा आवाम तब आज़ादी का ऐलान
(ईमिः28.05.2014)

वक़्त के सर होने तक

लगते रहेंगे वज़ूद पर ज़ख़्म
वक़्त के सर होने तक
रिसते रहेगे ज़ख़्म
ज़ंग-ए-आज़ादी का असर होने तक
(ईमिः29.05.2014)

एक सुर्ख सवेरे के लिए

लड़ता है क्रांतिकारी मज़लूम के लिए
क्योंकि उसे लड़ना ही है
लड़ना है एक सुर्ख सवेरे के लिए
बेपनाह के बसेरे के लिए
डर डर कर नहीं लड़ी जाती जंग
इसीलिए हो निडर चलना है संग संग
बंद कर देगा जिस दिन डरना आवाम
मच जाएगा निज़ाम-ए-ज़र में कोहराम
हों उसके पास कितने भी तोप और बम
डरेगा वह हमसे ग़र डरना बंद कर दें हम
हों उसपे त्रिसूल-ओ-तलवारकितने भी
कांप जायेगा हमारी निर्भय ललकार से ही
चाहते हैं ग़र इंसाफ के लिए लड़ना
छोड़ना होगा भूत-ओ-भगवान से डरना
लड़ना ही है हमें, लड़े बिना कुछ नहीं मिलता
हक़ के एक एक इंच के लिए है लड़ना पड़ता
(ईमिः28.05.2014)

Tuesday, May 27, 2014

धूप में चलने की आदत है कारवानेजुनून को

धूप में चलने की आदत है कारवानेजुनून को
बेपनाही के मौज में पनाह की जरूरत नहीं.
(ईमिः28.05.2014)

DU 9

Savita Jha Khan "Its a monster who laughs at others' expense! You are hardly a kavi or whatever!"  I don't claim to be Kavi or whatever. I do not laugh at anybody's expense nor am I a supporter  of any of the existing groups in DUTA politics and am staunch supporter of teachers being continued as adhocs instead of the posts being filled on regular basis but I am opposed to attempts to weaken the DUTA on the behest of the University authorities. I am laughing at your gratitude to a group/individual hobnobbing with the previous government responsible for present state of affairs and with the dictatorial  administration and sowing disunity in the teaching community by targeting the teachers' union instead of authorities. I am one of the worst sufferers of high handedness and fiefdom of jobs in the university. I had been appearing for interviews in this university for 14 years for the obduracy of not having a God father (as an atheist have no God so no God father) and accidentally got the job at the age of 41.  No lamenting, as I know that 99% jobs are given on extra academic considerations, if you are academically competent too, that's added qualification. Till 1989 there used to be interview in the department for adhoc panel of 30 and my name always figured in the first 10 since 1981 but never got an adhoc job. In a rarest of the rare "accident" of coincidences got a job in 1995. I am 15-16 years  junior in service to "talented" people  15-16 years younger to me. I had no 2 job priorities and feel fortunate to eventually get one.  As I said no lamenting. Question is not that I got it late but other way round, how could I get it? Please widen your perspective beyond the self interest.  Rethink about your monster adjective, though it does not say anything on my part.

Monday, May 26, 2014

सृजन का मक्सद है समृद्धि मानवता की

सुनता नहीं  जब दिमाग की बात दिल हो जाता है बेलगाम
बह कर इच्छा के आवेग में कर बैठता है आत्मघाती काम
वैसे तो होते नहीं अलग-अलग दिल-ओ-दिमाग के मुकाम
दोनों की द्वंद्वात्मक एकता है देती मानव क्रीड़ा को अंज़ाम
ज़िंदगी का वजूद है सबूत है कि निरंतर है क्रियाशीलता
बनती हैं काम वे क्रियाएं टपके जिनसे सृजनशालता
स्वांतः सुखाय सृजन है बर्बादी दुर्लभ प्रतिभा की
सच्चे सृजन का मक्सद है समृद्धि मानवता की
(27.05.2014)

तोते और भेड़ें

इंसानों में कमी है इंसान की
है दुनिया में तोतों की भरमार
बचकर कष्ट से दिमाग लगाने के
करते हैं रटा-रटाया मंत्रोच्चार
जहमत है बनाने में नय़े रास्ते
चलते हैं आंख मूंद कर भेड़चाल
तोता बोेलता है सिर्फ वही
जो उसे सिखाया जाता है
गड़ेरिया बैठाता भेंड़ उस खेत
जहां से पैसा हाता है
जबतक बने रहेगे लोग
यंत्रचालित तोते और भेड़ें
करते रहेंगे राज मुल्क पर
बहेलिए और गंडेरिए
(ईमिः27.05.2014)

Sunday, May 25, 2014

आखिरी जंग

जंग की रीतियां रुकी नहीं, बदलती रही हैं
आखिरी जंग होगी, जंग की रीति के खिलाफ
(ईणिः26.05.2014)

शिक्षा और ज्ञान 8

संस्कार और सामाजिक-मूल्य तथा नैतिकताएं जो हम जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना के परिणामस्वरूप, सचेत आकांक्षा से नहीं, खास ढंग के सामाजीकरण और रीत रिवाजों के परिणाम स्वरूप अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं, उसे विरासित की नैतिकता या नैतिकता की विरासत पहा जा सकता है. मैंने किशारावस्था में ब्राह्मणोचित संस्कारों और ब्राह्मणवादी मूल्यों और धार्मिक आस्थाओं की  आहुति देकर नास्तिकता का चयन किया और विरासत की नौतिकता को विवेक सम्मत नैतिकता से प्रतिस्थापित कर दिया.

कैसी संतुष्टि? मुझे संतुष्टि नहीं बेचैनी की तलाश है. हा हा. विवेक मनुष्य को पशुकुल से अलग करता है और उसका काम है सवाल पूछना और उसी को सत्य मानना जो प्रमाणित हो सके. सभी समाज अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से अपने मुहावरे और धर्म तथा देवी-देवताओं का अवधारणाएं गढ़ते हैं. समतामूलक रिग्वैदिक समाज में उनकी समझ से परे सिर्फ प्राकृतिक शक्तियां ही दैवीय थी. समाज के वर्गविभाजन के औचित्य के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश जैसी नई दैविक शक्तियों की अवधारणा गढ़ी गयी.

झूठों को झुकाने का ज़ज़्बा

सच मरता नहीं कितना भी बढ़ जाये झूठ का कुन्बा
अकेले सच में होता है सारे  झूठों को झुकाने का ज़ज़्बा
(ईमिः25.05.2014)

आत्म-मुग्ध तस्वीर पर

लिखना है एक कविता इस आत्म-मुग्ध तस्वीर पर
इसके अंदर छिपी अनंत संभावनाओं की तासीर पर
चाहा था इसने बचपन में करना वर्जनाओं से विद्रोह
तोड़ न पाई तब मगर समाजीकरण के संस्कारों का मोह
पड़ गयी थी पूर्वजों की परंपरा तब सोच पर भारी
बढ़ती रही स्वाभिमान से  आगे कभी हिम्मत न हारी
करती रही है योगदान नारी प्रज्ञा-दावेदारी के अभियान में
करके मानवता की सेवा जीते हुए ज़िंदगी सम्मान से
मानव चेतना का स्तर होता है विकास के चरण के अनुरूप
मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलता विकास का स्वरूप
अनंत को नापती ये आंखें और आत्माश्वस्त मुस्कान
देती हैं संकेत भरने की ऊंची एक नई इंक़िलाबी उड़ान
छिपी है इसकी भावप्रवण मुद्रा में एक नई अंतर्दरृष्टि
करेगी मानव समाज में जो समानुभूति की वृष्टि.
(ईमिः 25.05.2014)

याराना की यादें

याराना की यादें  होती हैं दोतरफा सदा
एक तरफ रुकी तो दूसरी तरफ भी सफा
(ईमिः25.05.2014)

Saturday, May 24, 2014

शिक्षा और ज्ञान 7

T.n. Tiwari  खुश रहिए. मैंने कहां माना नहीं कि मेरा कलम तेजाबी है?  "कलम भले तेजाबी दिखता होे ". दर-असल हवा को पीठ न देना या लीक से हटना यथास्थिति को मान्य नहीं, क्योंकि इससे उसके औचित्य पर ही प्रश्न लग जायेगा.दर-असल, शिष्टता मनुष्य में पाखंड का संचार करती है. लोग दिखना वह चाहते हैं जो होते नहीं -- सार और स्वरूप का साश्वत अंतर्विरोध -- और कई चतुर लोग इसमें सफल भी हो जाते हैं. हम सब साधारण इंसान हैं और असाधरण दिखने की कोशिस करते हैं, कई चतिर लोग सफल भी हो जाते हैं. असाधरणों में साधारण एक असाधरण बात है. मैंने किशोर वय में ही संस्कारों के साथ शिष्टाचार की भी अाहुति दे दी. स्वैच्छिक अशिष्टता के काफी खामियाजे भुगते हैं और भुगत रहा हूं. लेकिन ये खामियाजे पाखंड से मुक्ति के आनंद से काफी कमतर हैं. आक्रामक भाषा का प्रयोग कई बार जानबूझ कर करता हूं, कई बार उल्टा पड़ जाता है. लेकिन यह तो खेल है. कई बार आवेश में किशोरों का तरह आक्रमक भाषा का प्रयोग कर जाता हूं, उससे मैं पल्ला नहीं झाड़ता बल्कि आत्मालोचना करता हूं और भूल का आकार विकराल हुआ तो शर्मिंदगी महसूस करता हूं. शर्म एक क्रांतिकारी एहसास है. मैं दर-असल, सत्यम ब्रूयात.... वाले श्लोक की दूसरी पंक्ति ऐसा भूला कि कभी याद ही नहीं आती. हा हा. जो भी बात संस्कारगत अंतिम सत्य और अंतिम नैतिकता पर आघात करती है वह कड़वी लगेगी, मन की मिठास शब्दों में कड़वी लग सकती है क्योंकि यह एक अपरिचित किस्म की मिठास है और अपरिचित तथा अनजाने नये का भय हमें संस्कार में मिलता है जिसे हमारी शिक्षा निखारती है. हम सिद्धांत में अन्वेषण का दावा करते हैं व्यवहार में, अनुशासन और आज्ञाकारिता के नाम पर बच्चों की अन्वेषक प्रवृत्ति को कुंद करते हैं. लेकिन इतिहास की तरंगें अंततः इन बांधों का अतिक्रमण कर आरे बढ़ती हैं, संस्कारों और शिक्षा के चलते नहीं, उनके बावजूद.

Friday, May 23, 2014

छाले पड़ते हैं तमाशबीनों के हाथ में भी.

जलने के बाद पिघल गयी जंजीर तो क्या?
छाले पड़ते हैं तमाशबीनों के हाथ में भी.
(ईमिः23.05.2014)

Thursday, May 22, 2014

मिल जाते तुम तो खुदा हो जाते

 मिल जाते तुम तो खुदा हो जाते
इश्क-ए-जहाँ से नावाक़िफ ही रह जाते
मिल जाते जो तुम शुरू कर देती इबादत
दिमाग के इस्तेमाल की न पड़ पाती आदत
मिले न तुम तो मिली मुकम्मल कायनात
जश्न-ए-जहां में बीतते हैं दिन-ओ-रात
मिलते हैं वरदान अभिशाप के भेष में
मुहब्बत मिल जाती है वीराने देश में
वैसे तो इसका उल्टा भी हो सकता है
अच्छे के भेष में बुरा भी आ सकता है
छोड़ते है यहीं मगर ये बुरी बात
आओ करते हैं एक नई मुलाकात
ज़ुनूं में लेकर चलें हाथों में हाथ
मिलें कारवाने-इंकिलाब के साथ
मजा ही अलग इश्क का जमाने से
शामिल महबूब का भी इश्क जिसमें
शुक्र है कि खोजले पर तुम न मिले
खुदाई-ओ-बंदगी की ज़िल्लत से बच निकले
(हा हा बेतुकी तुकबंदी हो गयी.)
(ईमिः22.05.2014)
पुनश्चः
खुदाई-ओ-बंदगी की उबाऊ ज़िल्लत से दिगर
एक और गड़बड़ होती तुम मिल जाते अगर
एक की आबादी में सिमट जाती कायनात
शेष हो जाती अर्जुन के लक्ष्य का व्यर्थ भाग
(ईमिः22.05.2014)

Wednesday, May 21, 2014

लल्ला पुराण 154

Sumant Bhattacharya तम्हारी लगभग हर पोस्ट, जाते-जाते को छोड़कर इसी तकियाकलाम से शुरू होती हो कि लोग कहेंगे सुमंत मोदिया गया है. बार बार तुम्हारी दाढी में तिनका क्यों महसूस हो रहा है? अफ्सरों में हड़कंप से अच्छे दिन की तुम्हारी उम्मीद से आपातकाल का फासीवाद का रूप याद आता है. आपातकाल में ट्रेंने समय पर चलती थीं. विवि में परीत्रा समय पर हाती थीं. जैसे नैकरशाही मोदियायी हुई है वैसे ही संजयायी हुई थी.अफ्सरों और थैलीशाहों की युवराज की कृपा से चांदी थी. शहर के सारे गुंडा-मवाली संजय ब्रिगेड के हरकारे थे. धीरू भाई अंबानी जैसे लोग कबाड़ी से पूंजीपति बन गये. सोकिन मैका मिलते ही जनसा ने मुक्ति ली रानी-युवराज के फासीवाद से. वैसे मोदियाने की कतार तो लगी है. 16वीं सदी में इटली के फ्लोरेंस गणतंत्र  में शासक समिति के कौन्सुलर रहे मैक्यावली ने शासनशिल्प की अपनी अद्भुत कृति -- प्रिंस जो आज भी प्रासंगिक है -- को  स्पेन की मदद से सैन्यविजय के जरिए गणतंत्र को उखाड़कर निरंकुशतंत्र  स्थापित करने वाले डि' मेडिसी को समर्पित किया. लोग कहते हैं ऐसा उसने शासकीय कृपा के लिए किया. खैर उन्हें फ्लोरेंस का सरकारी इतिहास लिखने का असायनमेंट मिल गया था. खैर अवांछित सरकारी बेरोजगारी और अवांक्षित ग्रामीण एकांत मैक्यावली के लिए blessing in disguise  साबित हुयी. Prince के अलावा Discourses on Ten letters of Livius Titus जैसी क्लासिक दार्शनिक कृतियां लिखा गयीं जो सक्रिय राजनीति में रहते हुए शायद मुश्किल होता. ऐसे ही याद आगया. अन्यथा मत लेना.

Sumant Bhattacharya  मैंने सामाजिक न्याय के लफ्फाजों पर एक पोस्ट डाला था, खोजकर लिंक देने की कोशिस करूंगा. मैंने अलीगढ़ और इलाहाबाद में भी यही कहा था और अब भी कह रहा हूं कि यह मुद्दा लक्षण है रोग नहीं लेकिन कभी खबी लक्षणों के इर्द-गिर्द लामबंदी की शुरुआत से रोग की जड़पर हमला किया जा सकता है. हां यदि छात्र इस मुद्दे पर आंदोलन करते हैं तो मैं उनका समर्थन और बौद्धिक सहयोग करूंगा.  तानाशाहियों का इतिहास जुल्मतों का इतिहास होता है, सुशासन का नहीं. 

Monday, May 19, 2014

Marxism 2

The above comment was addressed to Jagdish G Chandra on the need of "class for itself".  I will post a simple write up some time. For the time being: 1. Continuous Change is the law of nature. There is continuous evolutionary quantitative change that matures into qualitative revolutionary change. Most visible example of evolutionary quantitative changes are feminist assertion and scholarship and Dalit assertion and scholarship in the last 30 years. 2. Anything that exists is destined to perish like slavery and feudalism (whose reminiscences still remain) so will capitalism.  Every system develops the seeds of its own destruction - its own contradiction.  In revolutionary qualitative changes there are objective and subjective factors. Crisis of capitalism or the maturing of its contradictions is objective factor as was witnessed in 1929 onwards in the US and the Europe and the recent crisis from 2007 on are the examples of objective factors and absence of an organized working class that by definition is class in-it-self by virtue of dependence on sale of labor for survival. But it remains a lump of mass as it is not able to comprehend the contradiction, i.e. as long it does not acquire class consciousness and organize itself into "class-for-itself". this "--in-" and "-for-" connectives make all the difference, we seek to remove it.

Marxism 1 (liberation)

This is a comment on CPI(ML)-Liberation's analysis of the 2014 elections.
Good analysis. But the "interpretations in various ways" is not enough, "the need remains to change it".
Where do we, the communists/leftists (affiliated and non-affiliated both) stand? In 1950s-60s, the combined left was the main opposition in the parliament due to ideological base outside. Where has that disappeared? Adopting as a tactic the electoral policy for "wrecking from within" as a platform for spreading the revolutionary ideas to organize the workers and peasants into a Class for itself, the communists began to disintegrate into factions and in course of time parties like CPI/M became qualitatively indistinguishable from other parliamentary parties and underground movement in the late 1860s was substantially suppressed/crushed for the lack of overground support and for the same reason the voice of dissent are being summarily silenced in the name of link with Naxals. There are over 2 dozen claimants of the legacy of the Naxalbari, many of them with hardly visible presence.
We all need serious introspection/retrospection and reassessment of the objective reality and existing form and level of social consciousness and forge a broad anti-fascist unity giving up self-righteous arrogance and in the process sort out differences. The unaffiliated, self-claimed leftists too would have roles. People bring out revolutions, not the parties. Parties and radical intellectuals help them becoming "class-for-itself" from the "class-in-itself" and in that task we have miserably failed.As far as 31% votes is concerned, it has always been like that. The history of the communal Right in India is as old as that of the Left. They have expanded their network to the deepest grass roots level and we with the advantage of being equipped with a radical science-- Marxism-- and ideological commitment for a just society, have been marginalized.

We really need serious rethinking. This is not to criticize any party but self-criticism.
We shall unite, fight and win.

Objective factor of revolution -- the crisis (maturing the contradiction) of capitalism, the general crisis  -- has presented itself more than once but primarily because of the absence of the subjective factors -- the working Class-for-itself -- and the capitalism's knack of recovery prevented the spontaneous upsurges world over. One of the blessings in disguise of 2014 polls is that demolished the myth of taken for granted vote bank and hopefully some sense of introspection among the so-called custodians of revolution. That is why Che Guerra over emphasized on the need of socialist education. Study classes of parties and their fronts; TUs have become the matter of the past

लोकतंत्र 1

एक युवा कॉमरेड ने इनबॉक्स में मायावती आदि के इस चुनाव में हासिे पर फेंका जाने का करण पूछा. मेरा उत्तरः

इस पर मैं एक लेख लिखूंगा. मैंने 1991 में लिखा था कि मंडल कमीसन का और जो भी परिणाम हो एक सकारात्मक परिणाम है- भ्रष्टाचार का जनतांत्रीकरण, जो भविष्य के ध्रुवीकरण का कारक बनेगा. लालुओं-मायाओं-मुलायमोें में विज़न होता तो ये अभागे ऐतिहासिक सख्शियत होते और इतिहास अलग होता, लेकिन ये तो सत्ता के सामंती उंमाद और संचय के वहम में फंस कर अपना और देश का सत्यानाश कर दिया. कांग्रेस का कुशासन औप भ्रष्टाचार असह्य हो गया, भ3मित-विखंडित वामपंथ का नासमझी और अकर्मण्यता के चलते विकल्प का निर्वात भरने के लिए कारपोरेट ने मोदी ब्रॉेंड पेश किया. चमत्कारों और अवतारों में यकीन रखने वाली जनता ले उसे पकड़ लिया. मैं कहा करता हूं कि मतदाता किसी की रखैल नहीं है एक साल पहले जिस जनता ने मुलायम की पार्टी को अभूतपूर्व बहुमत दिया, उसी ने उसे परिवार की पारटी बना दिया. मुलायम यदि गुंडागर्दी और दंगे रोक दिया होता तो उप्र में कम से कम 50 सीट पाते. मायावती को जब भी शासन का मौका मिला उन्होने सत्ता के अहंकार और भ्रष्चाचार में गुजार जिया. कव तक " अहिरै गुना कमोरी " होती रहेगी. कारपोरेटी फासिज्म का एक ही विकल्प हैः जागरूक मजदूर-किसान-छात्र लामबंदजी, तुम लोगों की जिम्मेदारी बढ़ गयी है, जनवादी चेतना से लैस जनमत की विरासत बनाने में हम नाकाम. अब नईपीढ़ी फैसला करे. हम इंसाफ और मानव-मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं. अंततः इंसाफ जीतेगा.
Chat Conversation End

Saturday, May 17, 2014

शुरू कर दिया है भरम तोड़ना उसने

शुरू कर दिया है भरम तोड़ना उसने
हवाले-खाक़ कर दिया दुकानें बाड़मेर में
नहीं है वैसे इसमें बजरंगियों का हाथ
कांग्रेस के भाजपा सांसद की करामात
आगे आगे देखिए अच्छे दिनों के हालात
जुबान खोलने पर पड़ सकती है लात
(ईमिः18.05.2014)

आता रहेगा लौट लौट कर स्पार्टकस

आता रहेगा लौट लौट कर स्पार्टकस

आता रहेगा लौट लौट कर स्पार्टकस
तोड़ने बेड़ियां गुलामी की
चढ़ता रहेगा सूली पर तब तक
जब तक पाजेब समझता रहेगा गुलाम
पैरों में पड़ी बेड़ियों को
और चीखता रहेगा डैविड
हम नाकाम क्यों रहे स्पार्टकस?
भूल गये थे हावर्ड फ्रॉस्ट लिखना यह बात
खुले-के-खुले रह गये थे
फंदे पर लटके स्पार्टकस के होठ
हो भयभीत एक गुलाम की समीक्षा से
कस दिया था तभा फंदा रोम गणराज्य ने
और बो दिया था बीज अपने विनाश का
टिका था जिसके गौरव का भव्य महल
गुलामों की हुनरमंद मेहनत की बुनियाद पर

खड़ा हुआ जिसके खंडहरों पर
एक निरंकुश रोम साम्राज्य
कहते हैं शहादतें बेकार नहीं जातीं
कर गयीं आदिविद्रोहियों की शहादतें
भविष्यवाणी गुलामी के युगांत का
पिर लौट कर आया था स्पार्टकस
हिला दिया था चूलें रोम साम्राज्य की
सूली पर चढ़ने के पहले
इंकिलाबी उद्घोष के साथ कहा था स्पार्टकस ने
हम होंगे कामयाब डौविड!

आता रहा है लौट लौट कर स्पार्टकस
आता रहेगा लौट लौट कर स्पार्टकस
तोड़ने बेड़ियां गुलामी की
चढ़ता रहेगा सूली पर तब तक
बची रहेगी जब तक बेड़ी की एक भी कड़ी
आता रहेगा लौट लौट कर स्पार्टकस
तोड़ने बेड़ियां गुलामी की
मानवता मुक्ति की मंजिल तक

 मानव-मुक्ति की चेतना से लैस
अबकी जब लौट कर आयेगा स्पार्टकस
नहीं चढ़ेंगे शूली पर स्पार्टकस-ओ-डैविड
टूटेंगी ज़र की गुलामी की सारी बेड़ियां
उल्लास मनायेंगे दुनियां के सारे स्पार्टकस-ओ-डैविड
होलिका जलाकर दुनियां के सारे फंदो की
और  हर्षोल्लास से
स्पार्टकस के सीने से लिपट
चिल्लायेगा नहीं उद्घोष करेगा डैविड
कामयाब हो गये हम स्पार्टकस
टूट चुकी हैं गुलामी का सभी बेड़ियां
आओ जश्न मनायें मानवता की मुक्ति का
अंततः इंसाफ की जीत का
और फिर कहीं नहीं जायेगा स्पार्टकस
(ईमिः 18.05.2014)