Tuesday, August 22, 2017

शिक्षा और ज्ञान 115 (नेहरू)

Sanjay Srivastav मित्र, हम सब ज्ञान के सहकारी अन्वेषण में लगे अज्ञानी-अल्पज्ञानी हैं, क्योंकि कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता कि हम उसकी चोटी पर खड़े होकर नीचे लंबी ढलान देखकर आत्मविभोर हो नाचने लगे कि हम ज्ञान के एवरेस्ट पर पहुंच गए है। ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है, हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों की बुनियाद पर नई मंजिलें खड़ी करती है। तभी तो हम पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंच सके हैं। अंतिम ज्ञान की दावेदारी या किसी अज्ञात स्वर्णिम अतीत में उसकी तलाश, भविष्य के विरुद्ध एक इतिहास-विरोधी साज़िश होती है, जो कभी-कभी कामयाब भी हो जाती है। लेखिन अंततः इतिहास आगे ही बढ़ता हैें। सबके पास कुछ-न-कुछ प्रकृतिदत्त प्रतिभा होती है जो उचित अवसर के परिवेश में निखरती हैं , वे भिन्न होती हैं, ऊंच-नीच नहीं। उन्हें ऊंच-नीच समाज बनाता है। पांचों उंगलियों के मुहावरे के पैरोकार यह नहीं बताते कि द्रोणाचार्य को एतलब्य की सबसे छोटी उंगली, अंगूठा ही क्यों सबसे खतरनाक लगा था?नेहरू यह लेख तो शुद्धतावादी क्रांतिकारियों के दक्षिणपंथी विचलन के आरोप का खतरा मोल लेते हुए, नेहरू के उपहास के तड़के के साथ 15 अगस्त के मोदी के भाषण की भक्तों की फेसबुकी जय-जय की भावुक प्रतिक्रिया में लिखा गया। चूंकि भावुक प्रतिक्रिया थी, इसलिए यह एक तरह से नेहरू पर आरोपों का जवाब हे गया इसलिए नेहरू के आलोच्य पहलुओं पर ज्यादा ध्यान नहीं गया; इसलिए भी कि इसके लिए समुचित शोध और विश्लेषण की जरूरत है, जिसका फिलहाल वक्त नहीं है। कभी मिला तो थोड़ा शोध के साथ इसे ज्यादा प्रामाणिक बनाने की कोशिस करूंगगा। कभी समय मिला तब!

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