Thursday, October 19, 2017

फुटनोट 139 (दीवाली)

Naveen Joshi साथी, जैसे-जैसे समाज में बाजार की पैठ बढ़ती गयी, उपभोक्ता संस्कृति का प्रसार होता गया उत्सवों का बाजारीकरण होता रहा। यदि मैं अपने बचपन के दीवाली के उत्सव के अनुभव सुनाऊं (सुनाऊंगा नहीं) तो भूमंडलीकरण की पीढ़ी को लगेगा कि दादी-नानी से सुनी कोई कहानी सुना रहा हूं। गांव में यह पर्व सद्कर्म की तरह मनाया जाता था। माना जाता था कि इस दिन जो काम कोई करेगा, वह साल भर करता रहेगा। इसलिए लोग दिन भर गाली-गलौच या कोई अहितकारी काम करने से बचते थे। 'मंत्र (जिसे मालुम हो) जगाया जाता था'। मुझे 'बिच्छू का मंत्र' मालुम था। मंत्र की हकीकत की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, हां मैं इतना मशहूर हो गया था अगल-बगल के गांवों के लोग सोते हुए गोद मे उठाकर ले जाते थे। यह इसलिए कि हमउम्र लड़के मेरी जासूसी करते थे कि मंत्र मैं कब जगाता हूं? कोई मंत्र होता तब तो जगाता? बिच्छू के मंत्र ने काफी जगह खा लिया। पटाखे और छुरछुरी को बारे में कोई जानता नहीं था। दियों और पकवानों का त्योहार था। शाम को गांव की अपनी-अपनी बस्ती में और दूसरी बस्ती के नजदीकी परिवारों में लावा-बताशा का आदान-प्रदान होता था। हम, बच्चे दिन भर दियलियां जुटाने, धोने-सुखाने, रूई से बत्तियां बनाने में लगाते थे और शाम को वन से ढाक के पत्ते तोड़ने जाते थे, ज्यादा दूर नहीं था, लेकिन बाल-सुलभ चर्चाओं के चलते हम घंटों में घर लौटते, डांट इसलिए नहीं खाते थे कि सालभर खाना पड़ेगा। पटाखे-फुलझड़ियां तो छोड़िए मोम बत्ती का भी प्रचलन नहीं था। 1967-68 में मैं जब शहर (जौनपुर) हाईस्कूल में पढ़ने गया तब पता चला कि शहर में दीवाली में आतिशबाजी भी होती है। स्कूल में बच्चे दीवाली के पहले ही पटाखे फोड़ते थे। मुझे अच्छा लगा। दीवाली की छुट्टी में घर जाते समय मोम बत्ती के कुछ डब्बे, पटाखे और फुलझड़ियां ले गया। खेत-खलिहान-घूर-बाग-बगीचे-देवी-देवताओं के निवास वाले पेड़ों, डीहों और उन पेड़ों के नीचे भी जिनमें किसी पूर्वज की आत्मा वास करती थी। उसके बाद सरस्वती (किताब का बस्ता) के पास दिया जलाकर कुछ देर किताब कॉपी लेकर बैठते थे जिससे साल भर पढ़ते-लिखते रहें।उस साल आस-पड़ोड के सारे बच्चे मेरे घर आ गए और पटाखे-फुलझड़ियों के चमत्कार का मजा लेने लगे। धीरे धीरे बाजार गांव में घुसती गयी और दीवाली का शहरीकरण होता गया. खरीफ की फसल खलिहान में पहुंचने के उत्सव के किसानों के त्योहार का शहरीकरण(बाजारीकरण) होता गया।ज्ञान पर धर्मशास्त्रीय वर्चस्व की लंबी प्रक्रिया के परिणास्वरूप किसानों के उत्सव में धार्मिकता के तत्व प्रवेश कर गए। दियों के इस पर्व पर धरती के सभी बासिंदों को हार्दिक बधाई

No comments:

Post a Comment