Monday, October 16, 2017

मार्क्सवाद 91 (धर्म)

अशोक जी स्वागत। मेरा काम किसी धर्म पर चर्चा में समय नष्ट करना नहीं है। हम धर्म की उन्हीं बातों पर बोलते हैं जिनका सामाजिक दुष्प्रभाव पड़ रहा हो। मैं तो नास्तिक हूं सब धर्मों को अधोगामी मानता हूं। तथाकथित हिंदू धर्म को सर्वाधिक। बाकी धर्मों में समानता की सैद्धांतिक गुंजाइश है, इसमें तो सब पैदा ही असमान होता है। जैसा मैंने कहा कोई जाट पैदा होता है कोई जाटव। हिंदू कोई धर्म नहीं होता धर्म की रोटी खाने और सियासत करने वालों ने एक भौगोलिक अस्मिता को विकृत कर निहित स्वार्थों के लिए धार्मिक जामा पहना दिया तथा अल्पसंख्यक सवर्ण का हित बहुसंख्यक हिंदू का हित बना दिया गया। मैं कई बार सफाई दे चुका हूं कि 'बाभन से इंसान' बनना जन्म की अस्मिता से ऊपर उटकर विवेक सम्मत अस्मिता के निर्माण का रूपक है। बाभन से इंसान बनना उतना ही जरूरी है जितना अहिर या हिंदू-मुसलमान से। हमारी स्भाविक अस्मिता एक इंसान की है बाकी अस्मिताएं हमारे बिना चाहे या कोशिस के समाज हम पर थोपता है। अनजाने में हम अनचाहे तमाम मूल्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के रूप में आत्मसात कर लेते हैं। थोपी हुई सामाजिक अस्मिताओं पर सवाल करके ही हम अपनी स्वाभाविक निरपेक्ष अस्मिता को विवेकशील, इंसानी अस्मिता में बदल सकते हैं। सादर।

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