Friday, October 20, 2017

बेतरतीब 18 (शाखा प्रसंग 1)

शाखा संस्मरण 1

1968-69 जौनपुर के टीडी कॉलेज में 10वीं का छात्र था और गोमती किनारे बलुआ घाट पर कामता लॉज (प्राइवेट हॉस्टल में रहता था।उसी छात्रावास में रहने वाले, बीए के छात्र और साप्ताहिक रेल सहयात्री के साथ एक दिन कबड्डी और खो खेलने के लिए बलुआ घाट पर मंदिर के पताके की तरह झंडा गाड़े मेरे क्लास का बेनी साव के खानदान का लड़का शुभाष गुप्ता चौड़ा सा खाकी पैंट पहने, बाएं कंधे के बीच से लाठी थामे गंभीर मुद्रा में सामने खड़े 10-12 लड़कों को पीटी करा रहा था। पीटी का क्लास मुझे वैसे भी नहीं पसंद था। हमारे उपरोक्त सीनियर ने पहुंचते ही झंडे के सामने खड़े खड़े होकर सावधान की मुद्रा में खड़े होकर सीने पर हाथ रख कर सर झुकाया और पीटी स्टाइल में हाथ नीचे कर पीटीआई के निर्देश 'पीछे मुड़' पर प्रतिक्रिया की तर्ज पर पीछे मुड़कर सहज हो गए। मुझे भी वैसा ही करने को कहा, इसका कोई तर्क नहीं समझ आया लेकिन एक सम्मानित सीनियर की बात मैंने बेमन अनका अनशरण किया। खो और कबड्डी की खेलों के बाद पताके सामने सब सावधान मुद्रा में खड़े हो गए, सुभषवा ने पीटाआई की तर्ज पर 'ध्वज प्रणाम 1,2,3'  का आदेश दिया और सबके साथ मैंने भी उपरेक्त कसरत दोराया। उसके बाद चलते हुए सबको जी जी कह कर नमस्ते करने लगे। मुझे अजीब लगा मिलने पर सब एक दूसरे के अस्तित्व का संज्ञान न लेते हुए झंडे के साने खड़े होकर कसरत करते हैं और अलग होकर छोटे बच्चों के भी जी कहकर नमस्ते नमस्ते करने लगते हैं। अजूबे तो होते ही हैं, लेकिन इससे मेरे कर्मकांडी, सनातनी परिवार में मिले संस्कारों को झटका लगा जिसमें सम्मान और अभिवादन हाथ जोड़कर, चरणसपर्श या माथा टेककर अभिव्यक्त किया जाता है।

क्रमश: ...

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